सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

क्या ज़रुरत है मुझे सौ बरस जीने की….

मुझे भीष्म की तरह इच्छा-मृत्यु नहीं चाहिए,
ना चाहिए कोई जीवेत शरदः शतं का वरदान,
गर दे सकता है तो खुदा मुझे नेमत दे ,
लम्हों को रोक सकने की!!!
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वो एक लम्हा जब वो मेरे सबसे करीब हो,
मैं उसकी धड़कन सुन सकूं ,
उसे भी मेरे साँसें सुनाई दे रही हों,
हाँ बस वही लम्हा, थाम लूं, फ्रीज़ कर दूं |
 
और जब वो लम्हा गुज़रे ,
फिर गर तू मौत भी बख्शे तो नूर समझूंगा|
तू ही बता जब जिन्दगी खुद लम्हों में जीती है ,
तो क्या ज़रुरत है मुझे सौ बरस जीने की !!!!
--देवांशु











गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

इंतज़ार है !!!!

किसी रोज़ यूँ भी होगा,

तुम बैठोगी मेरे कमरे की खिड़की पर,

और आसमां पर लटका चाँद शरमा जायेगा !!!!

 

कि होगा कुछ यूँ भी,

तुम गुनगुनाओगी कोई नगमा अपने बाल बनाते हुए,

और हवा में खुशबू खिल पड़ेगी, फ़ैल जाएगी !!!

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हाँ, होगा ये भी,

जब लुढ़काओगी चावल से भरा हुआ वो कलश अपने पैरों से ,

ये घर तुम्हारी बासमती से महक उठेगा !!!!

 

और ये तो हर रोज़ होगा,

जब इबादत में झुकेंगी हमारी नज़रें,

हर नूर बरस उठेगा , हम दोनो की ज़िंदगी में|

 

मुझे इंतज़ार है उस दिन का , हाँ  इंतज़ार !!!!

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

तुम जो नहीं हो तो...



चाँद डूबा नहीं है पूरा, थोड़ा बाकी है |
वो जुगनू जो अक्सर रात भर चमकने पर,
सुबह तक थक जाता, रौशनी मंद हो जाती थी,
अभी भी चहक रहा है, बस थोड़ा सुस्त है |


यूँ लगता है जैसे रात पूरी, जग के सोयी है ,
आँख में जगने की नमी है,
दिल में नींद की कमी |
सूरज के आने का सायरन,
अभी एक गौरेया बजाकर गयी है |



अब चाँद बादलों की शाल ओढ़ छुप गया है ,
सो गया हो शायद, थक गया होगा रात भर चलता जो रहा |
मेरी मेज़ पर रखी घड़ी में भी,
सुबह जगने का अलार्म बज चुका है |
गमलों में बालकनी है, डालें उससे लटक रही हैं ,

फूल भी हैं , बस तुम्हारी खुशबू नहीं. महकती ...


-- देवांशु


(चित्र गूगल इमेजेस से)


शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

जंगल



उस घने हरे भरे जंगल को देखकर कुछ यूँ लगा,
कि बारिश भी कितनी पाक होती है |
और जब यही बारिश पेड़ों के पत्तों से छनकर ज़मीं पर गिरती है,
तो इस ज़मीं को ज़न्नत सा खुशनसीब कर जाती है|




जंगल की उसी ज़मीं को देख ये खयाल जागा,
कि चलो वहीं चलें,
छोड़ आयें अपना रिश्ता वहीं |
इस रिश्ते का ना तो कोई नाम रख पाए हम,
न किसी और ने तवज्जो ही बख्शी,
कम से कम उस मुक़द्दस ज़मीं पर,
इसे ज़न्नत तो नसीब हो जायेगी | 


चलो इक बार ही सही, उसी जंगल में चलते हैं !!!!


-- देवांशु

सोमवार, 6 अगस्त 2012

बारिश



कल रात आंसुओं की हल्की बूंदा-बांदी हुई,
और अज़ल से प्यासी ज़मीन-ए-हसरत तड़प उठी ।
कोई सैलाब भी ना आया, जो गम बह जाता,
बस बुझते अरमानों के धुंए से उमस सी भड़क उठी ।






आज फिर तेरी यादों के गहरे काले बादल छाये हैं ।
इस बारिश में मेरा खो जाना ही मुनासिब होगा शायद !!!!
--देवांशु

(Image from Flickr)

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

ना जीना ना मरना

पैदा मैं हुआ नहीं,
अवतार मुझ जैसों का होता नहीं|
कटती है घुट के ज़िंदगी,
वक्त कभी बेख़ौफ़ सा होता नहीं |

एक रात जब आंसू की चादर बिछेगी,
एक भी मोती न होगा उसमें,
सिर्फ एक अनचाहा पानी,
और ज़िंदगी का नमक....

बस उस दिन रूह शांत हो जायेगी,
जो पैदा नहीं होते उन्हें मरने का हक नहीं,
जिन्होंने अवतार नहीं लिया, उनका,
परिनिर्वाण भी होता नहीं !!!!!


--देवांशु 

मंगलवार, 26 जून 2012

वो वक़्त भी आएगा..

कि एक वक़्त आएगा...हाँ वो वक़्त भी आएगा...तब  पूछूंगा ...
बता सकता है तो बता, कि उस वक़्त तेरी रज़ा  क्या थी ...

हाँ ठीक उसी वक़्त जब मेरे सर से किसी का साया जा रहा था,
दोनों हाथ जोड़ मांगा था तुझसे कुछ, आँखों में आंसूं भी थे,
पर ऐसा छोड़ा हाथ तूने, मेरे हाथ कुछ भी ना लगा....
आँखों में आँखें डाल पूछूंगा तब, कि  इसकी वजह क्या थी ...
बता सकता है तो बता, कि उस वक़्त तेरी रज़ा  क्या थी ...

या उस दिन, जब चंद कागज़ के टुकड़ों पर लिखे मुट्ठी भर लफज़,
ख़त्म कर रहे थे दो जिंदगियां, बड़ी बेरहमी से,तू कहाँ था ?
यकीनन तेरी तामीरत से मुझे इनकार नहीं था ,
पर कह तो सही , हुई हमसे भी ऐसी खता क्या थी..
बता सकता है तो बता, कि उस वक़्त तेरी रज़ा  क्या थी ...

सुना तू मशरूफ बड़ा है इन दिनों, किसी से मिलता नहीं,
तेरी ही कायनात के बाशिंदे हैं सारे, पर दिल तेरा पिघलता नहीं,
जो मौत है  मुनासिब, तो वही मुक़र्रर कर,फिर मैं भी जानूं ,
खा गयी जो गुलशन मेरा, ऐसी बदसूरत खिज़ा क्या थी..
बता सकता है तो बता, कि उस वक़्त तेरी रज़ा  क्या थी ...
 --देवांशु 

बुधवार, 25 जनवरी 2012

मैं एक अधूरा खाब बुनता हूँ…

मैं एक अधूरा खाब बुनता हूँ,

कुछ रुई के फाहों से बिखरे लम्हे,
कुछ तकली से संजीदा बीते दिन,
और उलझनों में फंस उनका घूमना,
एक-एक रेशा जिंदगी का,
आपस में लिपट-लिपट कर,
कुछ यूँ खिंचा चला आता है,
कि सांसों का धागा बनने लगता है|

फिर ढूंढ एक जुलाहे को वो धागा सौंप देता हूँ,
कि कोई तो एक राह दे,
उस बेमन और अटपटे से बने धागे को,
और वो उसे अपने औजारों से सजाने लगता है,
कुछ गांठे बंधती हैं, धागा तराश दिया जाता है,
मशीन पे चढा के खींचा भी जाता है,
मैं उन मशीनों की ताल में तुमको सुनता हूँ,

मैं एक अधूरा खाब बुनता हूँ…
--देवांशु