बुधवार, 25 जनवरी 2012

मैं एक अधूरा खाब बुनता हूँ…

मैं एक अधूरा खाब बुनता हूँ,

कुछ रुई के फाहों से बिखरे लम्हे,
कुछ तकली से संजीदा बीते दिन,
और उलझनों में फंस उनका घूमना,
एक-एक रेशा जिंदगी का,
आपस में लिपट-लिपट कर,
कुछ यूँ खिंचा चला आता है,
कि सांसों का धागा बनने लगता है|

फिर ढूंढ एक जुलाहे को वो धागा सौंप देता हूँ,
कि कोई तो एक राह दे,
उस बेमन और अटपटे से बने धागे को,
और वो उसे अपने औजारों से सजाने लगता है,
कुछ गांठे बंधती हैं, धागा तराश दिया जाता है,
मशीन पे चढा के खींचा भी जाता है,
मैं उन मशीनों की ताल में तुमको सुनता हूँ,

मैं एक अधूरा खाब बुनता हूँ…
--देवांशु