रविवार, 26 जून 2011

आशियाँ…


एक माहिर तामीरत की तरह,
किसी कोरे कागज पर,
आड़ी टेढ़ी सी लकीरें खींच,
बनाया एक ईमारत का
नक्शा|
नीव-ए-उम्मीद बड़ी मेहनत से
रखी और सींची,
खडीं की चाहतों की
चार दिवारी,
एक एक कोने को,
आसमान के
खालिस सितारों से सजाया|
तैयार है मेरे सपनों का,
छोटा सा आशियाँ,
“तुम" आकर देख तो लो,
यकीनन “महल" बन जायेगा….
                                                                --देवांशु

6 टिप्‍पणियां:

  1. ओह्ह्ह हो...बहुत खूब...गज़ब ढा रहे आज तो..:)

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  2. अपनी दुनिया में जब खुश हो तुम
    मेरी इन आंखों में नमी रहने दो,
    पाया सब कुछ जो मांगा खुदा से
    बस एक तेरी यह कमी रहने दो.

    --- कृष्णा

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  3. “तुम" आकर देख तो लो,
    यकीनन “महल" बन जायेगा
    किसी के होने से ज़िन्दगी में क्या फर्क पड़ता है को बयां करती आपकी ये रचना अप्रतिम है...बधाई स्वीकारें...

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  4. आप का बलाँग मूझे पढ कर आच्चछा लगा , मैं बी एक बलाँग खोली हू
    लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/

    मै नइ हु आप सब का सपोट chheya
    joint my follower

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