शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

जंगल



उस घने हरे भरे जंगल को देखकर कुछ यूँ लगा,
कि बारिश भी कितनी पाक होती है |
और जब यही बारिश पेड़ों के पत्तों से छनकर ज़मीं पर गिरती है,
तो इस ज़मीं को ज़न्नत सा खुशनसीब कर जाती है|




जंगल की उसी ज़मीं को देख ये खयाल जागा,
कि चलो वहीं चलें,
छोड़ आयें अपना रिश्ता वहीं |
इस रिश्ते का ना तो कोई नाम रख पाए हम,
न किसी और ने तवज्जो ही बख्शी,
कम से कम उस मुक़द्दस ज़मीं पर,
इसे ज़न्नत तो नसीब हो जायेगी | 


चलो इक बार ही सही, उसी जंगल में चलते हैं !!!!


-- देवांशु

सोमवार, 6 अगस्त 2012

बारिश



कल रात आंसुओं की हल्की बूंदा-बांदी हुई,
और अज़ल से प्यासी ज़मीन-ए-हसरत तड़प उठी ।
कोई सैलाब भी ना आया, जो गम बह जाता,
बस बुझते अरमानों के धुंए से उमस सी भड़क उठी ।






आज फिर तेरी यादों के गहरे काले बादल छाये हैं ।
इस बारिश में मेरा खो जाना ही मुनासिब होगा शायद !!!!
--देवांशु

(Image from Flickr)